कुछ पैसे मैं कमाता था , खुद अपनी रोटी बनाता था |
कुछ खास नहीं था मेरे पास , पर रोज नींद आती थी |
चांदनी खुद मुझे रोज सुलाती थी , तारो की बारात मेरे खाट पर आती थी |
रोज खुद के लिए वक़्त निकल पाता था , और जो अपने थे उनको अपनी बात बतलाता था |
अपनी ज़िंदगी, अपने हाल पर जीये जाता था |
एक रोज आया उम्मीदों का साया.. बतलाया ,
“ये क्या ज़ी रहे हो..? आगे की ज़िन्दगी में क्या ज़ी पाओगे…?
ऐसा ही रहा तो वक़्त पर क्या निशान छोड़ पाओगे..?
यु ही ज़िन्दगी एक दिन ख़त्म कर जाओगे .. न कुछ छोड़ोगे,कुछ भी सितारे न बचाओगे ..?”
ज़िन्दगी में काले साये भी आते है, दिन में ग्रहण भी लग जाते है |
क्या करोगे जब थक जाओगे, कहाँ भागोगे , कहाँ जाओगे |
मैं ठिठका , घबराया , सोचा, “मस्त मौला ज़िन्दगी से कुछ न हो पायेगा
कैसे मेरा नाम इतिहास में अंकित हो पायेगा..?
निर्णय किया कालजयी बनुँगा, चहुदिश विजय अभियान होगा ,
हर ओर मेरा और मेरा ही नाम होगा |”
तब से लिया मैंने उम्मीदों का साथ, महत्त्वकांछाओ को ले कर हाथ, विजयी बनने चला |
मिल गयी बहुत से मंज़िले , बहुत से कीर्तिमान , बहुत से सितारे , बहुत से अपने, बहुत से प्यारे |
पर आज नींद नहीं आती है , हर रात, एक नए सपनो का आगाज़ लाती है |
मलमल के बिस्तर पर, करवटे बदले बदले राते चली जाती है |
अँधेरी रातो में धुंधले सायों की बरसात नज़र आती है, आँखे मुंदने पर बेचैनी छा जाती है |
कानो में स्वर्ण ध्वनि आती है,बादल पर अग्निवर्षा छा जाती है |
और रोज रोज आत्मा कहती है ..
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“कहाँ हुँ मैं” |
©Abhishek Yadav
Image source www.google.co.in
It’s quite ironical that when we run after things, we lose the basic happiness of life. I think most of us can relate to this poem. Moving and beautifully penned.
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Thanks Saru for such beautiful remarks.
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