आज भी सुबह के गुलाबी चमकीले बादलों के टुकड़ो को ,
टुकर टुकर देख कर याद आया ,
क्या अजीब सा शौक दे गयी तुम ,
हमारे ख्वाबो के रंगीन , कांच से चमकीले टुकड़ो को,
तुम्हारी गर्माहट में लपेट कर , यादो की संदूक में ,
तह लगा लगा कर रखना।
और बीच बीच में खोल कर देखना संदूको को ,
जब लगे खुद की अंदर कुछ कुछ ,
काला, सियाह अँधेरा ,
कमी गुलाबी चमकीली यादों की ।
आज भी तुम्हारी छोड़ी हुई यादो की संदूक रक्खी है,
तुम्हारी मर्ज़ी का भुरभुरा ताला लगा कर ,
अटारी पर दबा कर,
मेरी तो ,
हिम्मत ही नहीं पड़ती संदूक कभी खोलने की ,
खुलने पर न जाने कौन सा बदल तुम्हारी यादों का ,
बहार आ जाये , और लगे बरसने ,
मेरी आँखों के कोर से ।
बस इतनी गुजारिश है , कभी आ कर ,
इस संदूक को ठिकाने लगाती जाना ।