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आत्म मंथन

आत्म मंथन

सोचता ही रह गया सारी ज़िन्दगी की मेरे भी दिन आयेगे , जब आयेगे तो लोग देखते रह जायेगे ,

न होगा कोई ओऱ छोर, होगे जगमग बादल चारो ओऱ ,

दीये उम्मीदों को टीम टिमटिमाये गे, मुस्कान के फूल लहलहाए गे ,

जो ख्वाब देखा था सब पूरे हो जायेगे |

 

पीछे देखता हुँ, तो बस पता हुँ अधूरे ख्वाब, टूटी उम्मीदे  और सिसकते आप ,

चाह कर भी न पाया खुशियो की डोर ,पर फसा पाया  खुद को हर ओऱ ,

पैबंद लगी उम्मीदों से क्या ज़िन्दगी गुजार पाउँगा ,सोचता हुँ की शायद कर ही न पाउँगा  |

 

 

कोई साथ नहीं अब मेरे, सब चले गए अपनी – अपनी ओऱ , मै मझ धार  जहाँ से न कोई ओऱ छोर ,

क्या करू ..? क्या विलाप करू ..?, या करू ब्रह्म हत्या,

कैसे खुद को मुक्त कराउ, कैसे उम्मीदों  की चुभन से खुद को बचाऊ ,

शायद  यही है अंत मेरा और ऐसे ही मै विश्व को अपनी कथा सुनाऊ |

 

तभी आत्मा बोली ” मुर्ख क्यों बिखरते जाते हो ..? क्यों  प्रारम्भ में ही अंत को बुलाते हो,

क्या हुआ जो तुम्हारे स्वप्नों की हुई आहुति , क्या हुआ जो तेरी अभिलाषाओ की न हुई इतिश्री,

क्यों घबराते हो , न कुछ खोया, न कुछ पाया , तो फिर क्यों विलाप करते जाते हो ,

उठो और नव दिवस में,नया विकासः  करो , नए  दिन से ने स्वप्न का आभाष करो |

 

टूटे दिल में धार नहीं होती, और लड़ने वालो की हर नहीं होती |

जाओ , जो न मिला उसे भूल जाओ , जो मिल सकता है उसे ले कर आओ |

हार गए तो भी योद्धा कहलाओगे , गर जीत गए तो जो चाहा था पा जाओगे |

तब अब मुस्कुराओ और फिर लड़ने जाओ |”

 

                          © Abhishek Yadav 2015

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