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मैं ही हूं अश्वथामा

 

 

जीवन के उत्थान पतन में,अंतहीन अनगिनत,पड़ाव कल्पियत हुए ,

बहुत सी मंज़िले आई बहुत से मील पत्थर आये,

बहुत कुछ पाया जीवन के छितिज पर,

बहुत कुछ गवाया इसी धरा पर ।

 

पर फिर भी न जाने क्यों न कोई हर्ष है जीवन उद्देश् को पाने का,

न कोई करुणा है, जीवन- तिरस्कार का,

सांसो में ये सारे स्याह रंग, विस्मित घ्वनियां इस कदर घुल गयी ,

की   प्रत्यछ ,अप्रत्यछ  महत्वहीन हो गए |

 

 

जय पराजय का मूल्य नहीं रहा,

दर्शन और अनुराग में अंतर परिलक्षित नही ,

हर्ष ,करुणा , मर्म, जिज्ञासा,ममता, काम, जुगुप्सा ,

सब एक वर्ण से हो चुके है।

 

क्या है,क्या हो रहा है,

और कौन सी योनि  में कायकल्पित होता जा रहा हूं,

कोई ज्ञान नहीं।

 

 

जीवन संज्ञा शून्य, अंतहीन, अकल्पित, अथाह

गति से,बढ़ता जा रहा है,

और मैं वैरागी, उदासहीन, निर्मोही खुद से दूर हुआ जा रहा हूं।

पता नहीं शून्य में ,त्रिशंकु  सा आज भी वही खड़ा हूं,

जहाँ योजनो पूर्व स्थित था,

मेरे लिये काल में कुछ नहीं बदला, मेरे लिए कल ने कुछ नहीं बदला,

 

 

क्योंकी शायद,

मैं ही हूं अश्वथामा।

 

 

 

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© Abhishek Yadav 2016

Image source-  www.google.co.in

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