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मेरी ज़रूरतें

दो वक़्त की रोटी ,कुछ जोड़ी कपडे , और सर पर एक छत,

यही तो ज़रूरत होती है ,

मुझ  जैसे इंसान की !

ये जरूरतें तो  मेरा शहर भी कर सकता था ,

ये जरूरतें तो मेरा अपना गाँव भी पूरा कर सकता था .

 

तो फिर क्यों जरुरत पड़ी मुझ  जैसे को ,

इंसानी समंदर में डुबकी लगाने की ,

इस सैलाब के साथ बहते जाने की ,

जिसका का कोई आदि है न अंत

न कोई ओर न छोर  |

 

क्या सिर्फ ये ही मेरी जरूरते है ..?

या फिर मै नहीं ईमानदार खुद से ,

या फिर मुझे इल्म ही नहीं अपनी ज़रूरतों की  ..?

 

शायद मुझ  जैसे और भी न जाने कितने होगे ,

दूसरी जमी पर, अपनी खुद ज़मी से जुदा,

तलाश करते अपने ज़मी, ज़रूरतों और ज़ज़्बातो की  |

 

ये दोस्त मेरे अगर पता चल जाये की माज़रा क्या है .?

की मुझ जैसो को अपने जरुरतो नहीं पता..?

या मुझ जैसो को जरुरत आन पड़ी और ज़रूरतों की ..!

 

बता देना , मुझे याद से ,

मुझ जैसे जरूरतमंद को जरुरत है ,

अपनी ज़रूरतें जानने की  |

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 Image source – www.google.co.in

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